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बीए सेमेस्टर-2 - हिन्दी - कार्यालयी हिन्दी एवं कम्प्यूटर

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2719
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-2 - हिन्दी - कार्यालयी हिन्दी एवं कम्प्यूटर

अध्याय - 4
पल्लवन

पल्लवन : परिचय

पल्लवन का शाब्दिक अर्थ - 'पल्लवन' शब्द 'पल्लव' से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - विस्तार । पल्लवन का दूसरा अर्थ 'नया कोमल पत्ता भी है, मगर यहाँ पल्लवन का अर्थ दिए गए दोनों ही अर्थों के समन्वित रूप के अनुसार किसी सूक्ति या गद्य अथवा पद्य के नवीन और सुकोमल भाव - विस्तार से है। अंग्रेजी में इसे 'एम्प्लीफिकेशन' ( Amplification) कहते हैं। हिन्दी में इसके अनेक नाम हैं; जैसे- भाव पल्लवन, विचार- विस्तार वृद्धिकरण, भाव - विस्तारण आदि ।

पल्लवन का सामान्य परिचय - संक्षेपण में किसी विषय या वस्तु का संक्षिप्तीकरण किया जाता है। इसके विपरीत पल्लवन में विषय का विस्तार किया जाता है। साहित्य में प्राय: ऐसे कितने ही वाक्य अथवा काव्य पंक्तियाँ होती हैं, जो अपने भीतर भाव के अथाह सागर को सँजोये होती हैं। यह मानव-जीवन में नैतिक मूल्यों और जीवन के आदर्श सिद्धान्तों का सन्देश मानव-समाज को देती हैं, इसीलिए इन्हें सूक्ति कहते हैं। ये सूक्तियाँ कभी सीधे-सीधे तो कभी-कभी लक्षणा अथवा व्यंजना- शब्द- शक्तियों के माध्यम से वह सन्देश देती हैं। लक्षणा और व्यंजना में व्यक्त भावों और सन्देशों को साधारण बुद्धि का व्यक्ति समझ नहीं पाता। इसके भाव को विस्तारपूर्वक जनसामान्य को समझाना पड़ता है। इस भाव विस्तार को ही सामान्यतः पल्लवन कहते हैं।

स्पष्ट है कि सूक्ति सभी लोगों के लिए सामान्यतः हृदयंगम नहीं होती; अतः जनसाधारण के लिए उसे सुगम बनाने हेतु इसको स्पष्ट करने के लिए पल्लवन की आवश्यकता होती है।

पल्लवन की परिभाषा - उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि “किसी भी गद्य, पद्य, सूक्ति, लोकोक्ति आदि का भाव-विस्तारण करने की प्रक्रिया को पल्लवन कहा जाता है। "

पल्लवन की पद्धति

पल्लवन भावाभिव्यक्ति की एक आदर्श कला है। असमें निपुणता प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति उच्चकोटि का विचारक, वक्ता, कवि, निबन्धकार, कहानीकार, नाटककार, पटकथा-लेखक, उपन्यासकार आदि कुछ भी बन सकता है। पल्लवन की कला मानव-जीवन में जितनी उपयोगी है, उतनी ही श्रमसाध्य भी है। निरन्तर अभ्यास से इसमें निपुणता प्राप्त की जा सकती है। पल्लवन में निपुणता प्राप्त करने के लिए अभ्यास के साथ-साथ इसके सिद्धान्तों की जानकारी होना भी नितान्त आवश्यक है। ये सिद्धान्त पल्लवन के नियम भी कहलाते हैं। इन सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

1. नीति अथवा सूक्ति वाक्य का भावग्रहण - पल्लवन प्रायः नीतिगत वाक्यों अथवा जीवन-मूल्यों और आदर्शों की प्रेरणा देकर समाज में उनकी प्रतिष्ठापना करने वाली काव्यगत सूक्तियों का किया जाता है। पल्लवन से पूर्व उन वाक्यों अथवा सूक्तियों को भावग्रहण करना जरूरी होता है; क्योंकि जब तक लेखक उनका भावग्रहण करने में समर्थ नहीं होगा, तब तक उन भावों की व्याख्या और जीवन में उनकी उपयोगिता को प्रमाणित नहीं कर सकेगा। पल्लवन का लेखक जितनी सहृदयता से उस भाव को ग्रहण करेगा, उतनी ही सहजता और सहृदयता से उस भाव को विस्तार दे सकेगा।

2. मूलभाव के सहयोगी भावों की महत्ता का प्रतिपादन - मानव के मन में कभी भी कोई विचार एकाकी रूप में जन्म नहीं लेता। किसी विषय की जीवन में उपयोगिता अथवा सार्थकता को लेकर व्यक्ति के मन में विचारों का सोता फूटता है। ये भाव यद्यपि अलग-अलग होते हैं, किन्तु एक-दूसरे के सहयोगी और पूरक होते हैं। इन सहयोगी भावों की महत्ता को समझे बिना मुख्य भाव हृदय में विस्तार ही नहीं पा सकता। इसलिए किसी सूक्ति या नीतिवाक्य का पल्लवन करते समय हमें उसके सहयोगी भावों का यथोचित समावेश अवश्य करना चाहिए, तभी वह पल्लवन सम्पूर्णता को प्राप्त हो सकेगा।

3. पल्लवन के प्रारूप की संकल्पना- किसी विचार अथवा भाव के अनेक पक्ष होते हैं। इनमें से कुछ पक्ष तो इतने प्रबल होते हैं कि प्रत्येक पक्ष को आधार बनाकर एक पृथक ग्रन्थ की रचना की जा सकती है। इसलिए अच्छे पल्लवन के लिए यह आवश्यक है कि हम पल्लवन की रचना से पूर्व उसके प्रारूप की संकल्पना पर विचार कर लें कि हम प्रस्तुत भाव के किस पक्ष को लेकर सूक्ति का पल्लवन करने जा रहे हैं। पल्लवन से पूर्व उसकी संकल्पना कर लेने पर विचारों में भटकाव नहीं होता; क्योंकि पूर्व-संकल्पना के अभाव में हम कभी सम्बन्धित भाव के एक पक्ष का उल्लेख कर रहे होते हैं तो अगले ही क्षण हम उसके दूसरे पक्ष पर आ जाते हैं। इस तरह हम किसी भी पक्ष को पूरी तरह स्पष्ट नहीं कर पाते।

4. प्रासंगिकता —किसी भी भाव की महत्ता उसकी प्रासंगिकता पर निर्भर होती है। इसलिए किसी सूक्ति अथवा नीतिवाक्य का पल्लवन करते समय वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। प्रासंगिकता की अनदेखी करके किया गया पल्लवन उसी प्रकार निरर्थक सिद्ध होता है, जिस प्रकार कुपोषण के शिकार बच्चे की मृत्युपरान्त उसकी माँ को पोषकता पर दिया गया व्याख्यान अथवा उसे दी गई पुष्टाहार पोटली व्यर्थ ही होती है।

5. आद्योपान्त प्रभावशीलता - एक आदर्श पल्लवन का यह सिद्धान्त है कि उसे आदि से अन्त तक प्रभावशील होना चाहिए। सूक्तिगत वाक्य का भाव विस्तार भले ही दो-चारं वाक्यों में हो, किन्तु वह विस्तारित अनर्गल प्रलाप से श्रेष्ठ होता है। अप्रासंगिक और निरर्थक बातों का समावेश करके पल्लवन को विस्तार देने का प्रयास नहीं करना चाहिए; क्योंकि उससे उसकी प्रभावशीलता कम होती है।

6. भावानुकूल भाषा का चयन- कोई पल्लवन तभी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल होता है, जब उसमें भाव के अनुरूप ही उचित शब्दावली का प्रयोग हो । भावानुकूल उचित शब्दावली के द्वारा पल्लवन में प्रवाह और प्रभाव दोनों ही द्विगुणित होकर अपनी उपादेयता को सिद्ध करने में सफल होते हैं।

स्मरण रखने योग्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

1. किसी भी उक्ति में जो मूलतत्त्व है, उसको स्पष्टतः समझाना थोड़ी कठिन बात है; क्योंकि इस कार्य में अप्रासंगिकता आने की सम्भावना रहती है। यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि विस्तार मूलतत्त्व को स्वयं में सन्निहित किए हुए हो तथा वह प्रसंग से दूर न जाए।

2. यद्यपि व्याख्या करने में भी विस्तार ही होता है, तथापि उसमें सन्दर्भ, काव्य-सौन्दर्य, आलोचना तथा भावों का चित्रण भी अपेक्षित होता है, परन्तु वृद्धिकरण में केवल सूक्ति का ही विस्तार किया जाता है और इसमें विचार सुसंगठित होते हैं।

3. पल्लवन में कथन या सूक्ति के मूल अर्थ को भली-भाँति समझकर ही उसका विस्तार करना चाहिए। इसे क्रमशः विकास प्रदान करना चाहिए। इस कार्य में आलोचना, पुनरुक्ति, टिप्पणी अथवा काव्य-सौन्दर्य के तत्त्वों का उल्लेख करके उसे बोझिल नहीं बनाना चाहिए। उक्ति को समझाने के लिए यदि कोई उदाहरण अपेक्षित हो तो उसे देने में कोई हानि नहीं है ।

4. पल्लवन में सरल एवं चुस्त भाषा का प्रयोग करना चाहिए। इसको हमेशा अन्य पुरुष Third Person) में ही लिखना चाहिए। ध्यान रहे कि सूक्ति, लोकोक्ति तथा पद्य - पंक्ति का ही पल्लवन किया जाता है: अत: यह आवश्यक है कि उसकी मूलभावना का स्पष्टतः प्रतिपादन किया जाए। इसे 'गागर में सागर' वाले कथनों का स्पष्टीकरण भी कहा जा सकता है।

5. भाव-विस्तार करते समय सूक्ति या लोकोक्ति का क्रम नहीं टूटना चाहिए। अर्थ का तारतम्य भी बना रहना चाहिए।

6. पल्लवन करते समय वाक्य संरचना में व्याकरणिक नियमों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए, इससे भावाभिव्यक्ति प्रभावशाली बनती है और लेखक के लेखन कौशल का अमिट प्रभाव पाठक के हृदय पर पड़ता है।

7. पल्लवन करने के पश्चात् उसका एक बार वाचन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने पर उसमें अनजाने में रह गई त्रुटियों को सरलता से दूर करके उसे प्रभावशाली बनाया जा सकता है। पल्लवन के मध्य में यदि कहीं किसी विचार का क्रम टूट रहा है अथवा कोई महत्त्वपूर्ण बात लिखने से छूट गई है तो उनको उसमें समाहित करके पल्लवन को सम्पूर्णता प्रदान की जाती है।

8. यह बात ठीक है कि पल्लवन में किसी आदर्श सूक्ति वाक्य के भाव का विस्तार किया जाता है, किन्तु इस विस्तार में केवल प्रासंगिक बातों को ही सम्मिलित करना चाहिए। यदि भूलवश अप्रासंगिक बातों का समावेश किसी कारण से हो गया है तो उन्हें अन्तिम वाचन के समय हटाकर पल्लवन को पूर्णता प्रदान करनी चाहिए।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय - 1 कार्यालयी हिन्दी का स्वरूप, उद्देश्य एवं क्षेत्र
  2. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  3. उत्तरमाला
  4. अध्याय - 2 कार्यालयी हिन्दी में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली
  5. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  6. उत्तरमाला
  7. अध्याय - 3 संक्षेपण
  8. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  9. उत्तरमाला
  10. अध्याय - 4 पल्लवन
  11. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  12. उत्तरमाला
  13. अध्याय - 5 प्रारूपण
  14. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  15. उत्तरमाला
  16. अध्याय - 6 टिप्पण
  17. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  18. उत्तरमाला
  19. अध्याय - 7 कार्यालयी हिन्दी पत्राचार
  20. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  21. उत्तरमाला
  22. अध्याय - 8 हिन्दी भाषा और संगणक (कम्प्यूटर)
  23. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  24. उत्तरमाला
  25. अध्याय - 9 संगणक में हिन्दी का ई-लेखन
  26. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  27. उत्तरमाला
  28. अध्याय - 10 हिन्दी और सूचना प्रौद्योगिकी
  29. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  30. उत्तरमाला
  31. अध्याय - 11 भाषा प्रौद्योगिकी और हिन्दी
  32. ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्न
  33. उत्तरमाला

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